जनता का पैसा है, ना नेताओं की जेब से जाता है ना अफसरों की

जनता का पैसा है, ना नेताओं की जेब से जाता है ना अफसरों की



सूचना विभाग उत्तराखंड प्रदेश का एक ऐसा विभाग है जिसका भगवान ही मालिक है। यहां के विभागीय अधिकारी तो खुद भगवान से कम नहीं मानते, जितना करम करें उतना कम।


सूचना का अधिकार के अंतर्गत सूचना विभाग के लोक सूचना अधिकारी द्वारा दी गई एक सूचना से स्पष्ट है की सरकार का पैसा उनके हाथ का मैल है। इसलिए विभागीय कानून को वे हमेशा ताक पर पर रखकर पर रखकर काम करते हैं।


सूचना का अधिकार के अंतर्गत एक आवेदन कर्ता को उपलब्ध कराई गई को उपलब्ध कराई गई सूचना के अनुसार वित्तीय वर्ष 2016-17 से लेकर वित्तीय वर्ष 2018-19 तक रुपए 28,86,222 मात्र की टैक्सी सेवा पत्रकारों को उपलब्ध कराई गई। साथ ही रु. 63,86,949 रुपए की बस सेवा पत्रकारों को उपलब्ध कराई गई।
इस प्रकार 3 वर्ष में कुल 92,73,171 रुपए की वाहन सुविधा विभाग द्वारा पत्रकारों को दी गई अथवा उनके नाम पर व्यय किया गया वह भी महज 207 पत्रकारों को अर्थात सालाना औसत 69 पत्रकाारों को विभाग द्वारा निशुल्क टैक्सी सेवा की सुविधा उपलब्ध कराई गई। इस सूचना से परिलक्षित होता है कि सूचना विभाग औसतन रुपए 30,91,057 प्रति वर्ष पत्रकारों के नाम पर वाहन व्यय के रूप में खर्च करता है और उपलब्धी निल बटे सिफर।


ज्ञात हो कि  पत्रकारों को यह निशुल्क सुविधा  पत्रकारिता हेतु ही  उपलब्ध कराई जाती है। समय-समय पर विभाग अपनी कवरेज के लिए पत्रकारों को कवरेज के लिए भेजता है। उस समय कवरेज के लिए जाने वाले पत्रकारों के लिए टैक्सी की व्यवस्था विभाग करता है।


यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि नियमावली के अनुसार विभाग जब टैक्सी की सेवा पत्रकारों को उपलब्ध कराता है तो ऐसी व्यवस्था में एक विभागीय अधिकारी का पत्रकार समूह के साथ जाना अनिवार्य है ताकि उसकी देखरेख में पत्रकार संबंधित कवरेज कर सकें और उसका लाभ विभाग को भी मिल सके।


लेकिन वर्षों से एक परंपरा चली आ रही है जिसके अंतर्गत पत्रकारों को टैक्सियाँ उपलब्ध कराने के नाम पर विभाग बड़ा खेल खेलता है। न कोई अधिकारी पत्रकारों के साथ जाता है और ना ही कोई कवरेज की रिपोर्ट सार्वजनिक की जाती है। जिससे स्पष्ट है कि पत्रकारों के वाहन व्यय के नाम पर विभागीय अधिकारी हर वर्ष लाखों रुपए का चूना सरकार को लगाते हैं।


राज्य गठन के  19 वर्ष बाद भी  सरकार या तो अपने अधिकारियों को नियंत्रित नहीं कर पाई है या फिर किसी दूसरी अवधारणा में आंखें मूंदकर बैठी है।
जनता का पैसा है, ना नेताओं की जेब से जाता है ना अफसरों की।