न्यायपालिका भी आलोचनाओं से परे नहीं है - न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता
अहमदाबाद। किसी भी भारतीय नागरिक को आलोचना करने का अधिकार है। इससे किसी सरकार न्यायालय की अवमानना नहीं होती। यह कहना है सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता का जिन्होंने शनिवार को अहमदाबाद में एक चैरिटेबल सोसायटी आयोजित आयोजित अधिवक्ताओं की एक कार्यशाला में कहा की देश के हर नागरिक को आलोचना करने का अधिकार है और ऐसा अधिकार किसी सरकार अथवा न्यायालय से विद्रोह नहीं माना जा सकता।
न्यायमूर्ति गुप्ता ने यह स्पष्ट किया की आलोचना और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत विचार होते हैं, अधिकारिक नहीं।
उन्होंने कहा, "ज्यूडिशरी, ब्यूरोक्रेसी और एग्जीक्यूटिव्स की आलोचना ऐसी संस्थाओं का सहयोग करती हैं, ना कि उनका उनका विद्रोह। यदि हम ऐसी आलोचनाओं को रोकते हैं तो यह एक पुलिस राज्य कहलाएगा ना कि लोकतंत्र।"
उन्होंने कहा कि मेरे अनुसार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में एक अधिकार को परिभाषित नहीं किया गया है जो है चेतना का अधिकार जिसमें मतभेद का अधिकार भी शामिल है। उन्होंने कहा कि परंपरागत नियमों और व्यवस्थाओं पर टिके रहने से समाज को क्षति होती है।
उन्होंने कहा कि एक ही लाइन पर चलते रहने से नई व्यवस्थाएं और विचारधाराएं उत्पन्न नहीं हो सकती जो समाज के लिए बेहद जरूरी होती हैं। मतभेद रखने वाले लोगों में से ही नई विचारधाराएं उत्पन्न होती हैं। उन्होंने यह भी कहा कि समाज के विकास के लिए यह आवश्यक है कि हर विषय में प्रश्न किया जाए।
उन्होंने कहा कि भारत जैसी सेकुलर देश में नास्तिक, या विश्वास करनेवाले सभी को अपनी बात कहने का अधिकार है।
उन्होंने याद दिलाया कि 1975 में इमरजेंसी के दौरान न्यायमूर्ति एकमात्र न्यायाधीश जिन्होंने अनियंत्रित शक्तियों का विरोध किया था।
उन्होंने कहा कि सत्ता में रहने वाली किसी भी सरकार का विरोध करने का हमारा अधिकार है फिर सरकार चाहे कोई सी भी हो।
उन्होंने कहा कि सेडिशन के नियम का दुरुपयोग स्वतंत्रता सेनानियों के सिद्धांतों के विपरीत है जिसके लिए लड़े थे उन्होंने कहा कि न्यायपालिका भी आलोचनाओं से परे नहीं है, उसे स्वयं अपने कार्यों की जांच करनी चाहिए।