पंचायत  कानून संशोधन: सिपहसालारों को नहीं साध पाए मुख्यमंत्री

पंचायत  कानून संशोधन: सिपहसालारों को नहीं साध पाए मुख्यमंत्री



देहरादून। उत्तराखंड पंचायत चुनाव 2019 के लिए उत्तराखंड सरकार द्वारा 25 जुलाई 2019 को अध्यादेश संशोधन के माध्यम से जारी किया गया फरमान सरकार की हताशा और अक्षमता को ही नहीं दर्शाता  बल्कि यह भी दिखाता है कि सरकार सबकुछ दाँव पर लगाकर भी अपने प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़ने के लिए आतुर है। अध्यापन कार्य से राजनीति के शिखर पर सुशोभित हुए मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने संघ के समर्पण और समर्थन की कक्षाओं में तो आवश्य भागीदारी की होगी लेकिन सलाहकारों और प्रशासनिक कलाकारों को साधने और समझने का माद्दा उनमें अभी तक नजर नहीं आया है।


बात करें पंचायत चुनाव 2019 में सरकार द्वारा दो से अधिक बच्चों वाले और कम शिक्षित व्यक्तियों को चुनाव से रोककर पुराने तजुर्बेकार अथवा अन्य पढ़े लिखे व्यक्तियों को चुनाव में पटकनी देने के लिए या फिर अपनी पार्टी के उम्मीदवारों को पंचायत पदों पर सुशोभित करने के लिए क्या मुख्यमंत्री जी को इतना हल्का आधार लेना पड़ा कि वे स्वयं अपनी बात पर नहीं टिक पाए भले ही अब वे सर्वोच्च न्यायालय की राह पकड़ने की बात कह रहे हो लेकिन यह स्पष्ट है कि कानून की निर्धारित व्यवस्थाओं से आगे मुख्यमंत्री जी नहीं जा सकते हैं।


यह सुस्थापित तथ्य है कि कोई भी नियम कानून जिस तिथि पर बनाया जाता है उसको बैक डेट से या पिछली तारीख से लागू नहीं किया जाता। इतना मामूली सा तत्वज्ञान मुख्यमंत्री जी के सलाहकार अथवा विधि विभाग के विशेषज्ञ अधिकारी यदि मुख्यमंत्री जी को नहीं दे पाते हैं तो उन्हें भारी भरकम पगार और सुविधाएं देने का क्या लाभ है यह एक गंभीर और विचारणीय प्रश्न है जिस पर माननीय मुख्यमंत्री जी को अवश्य और ससमय ध्यान देना चाहिए अन्यथा भविष्य में भी उनकी स्थिति छिछालेदार ही होती रहेगी।


हालिया मामले में नैनीताल हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रमेश रंगनाथन एवं न्यायमूर्ति आलोक कुमार वर्मा की खंडपीठ ने में की गई सुनवाई में स्पष्ट रूप से माननीय उच्च न्यायालय ने कट ऑफ डेट को 25 जुलाई 2019 बताया है अर्थात पंचायती राज कानून में जो  संशोधन सरकार द्वारा किया गया है वह उक्त दिनांक से पूर्व लागू नहीं किया जा सकता उसका प्रभाव सरकार द्वारा जारी किए गए नोटिफिकेशन की तिथि के बाद ही हो सकता है।


दो से अधिक बच्चे वाले  व्यक्ति  पंचायत चुनाव में प्रतिभाग न करने देने तथा हाई स्कूल पास होने की बाध्यता को भी  माननीय न्यायालय में चुनौती दी गई थी।  यहां प्रश्न यह भी उठता है कि भारतीय संविधान में जो व्यवस्थाएं हैं क्या हम उनके विरुद्ध कोई कानून बना सकते हैं अथवा नहीं यदि हां तो क्या हम पहले से बने हुए कानून के विपरीत कोई अन्य कानून बनाकर पूर्व के कानून को अप्रभावित कर सकते हैं।
ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि भारत में जनसंख्या नियंत्रण कानून में दो से अधिक बच्चे ने होने का प्रावधान अभी तक नहीं है। साथ ही यह भी जनप्रतिनिधियों के लिए बने जनप्रतिनिधि कानून में किसी प्रकार की शैक्षिक अहर्यता नहीं है।


देखा यह भी जाना चाहिए कि यदि देश में सबसे निचले स्तर के जनप्रतिनिधि अर्थात पंचायतों के प्रतिनिधियों के लिए शैक्षिक योग्यता निर्धारित की जा रही है तो उच्च सदन संसद के लिए शैक्षिक योग्यता क्यों नहीं निर्धारित की गई जबकि वहां अधिक योग्यता और निर्णय क्षमता की आवश्यकता होती है।


प्रदेश सरकार ने उक्त संशोधन करने से पूर्व ने तो किसी स्टेकहोल्डर से परामर्श किया और न ही प्रभावित व्यक्तियों/स्टेकहोल्डर्स को संशोधित कानून के अनुसार ग्रेस पीरियड दिया गया यदि ग्रेस पीरियड दिया जाता तो संभवत कुछ लोग हाई स्कूल की शैक्षिक योग्यता वाली अहर्यता को पूरी कर पाते। इस प्रकार लोगों को शिक्षित करने का प्रयास भी फलीभूत हो सकता था।


प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्रों में शिक्षा स्वास्थ्य यातायात रोजगार जैसे  बुनियादी  आवश्यकता ओं का कितना अभाव है यह सर्वविदित है इसके बाद भी एशियाई नेताओं का निर्धारित किया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है  सरकार का कार्य बुनियादी तौर पर समाज  और क्षेत्र को विकसित करना होता है ना कि  अपने  उद्देश्यों के लिए लोगों पर नाना प्रकार के प्रतिबंध लगाना  स्पष्ट है कि  दो बच्चों से अधिक  वाले व्यक्तियों को  पंचायत चुनाव में  अयोग्य घोषित करके  तथा  शैक्षिक योग्यता निर्धारित करने से पहाड़ी क्षेत्रों में  पंचायत प्रतिनिधियों के लिए उम्मीदवारों की उपलब्धता दूभर हो जाएगी। ऐसे में अन्य क्षेत्रों से भेजे गए या विस्थापित उम्मीदवार ही पहाड़ी क्षेत्रों में टूरिस्ट की भांति पंचायत पदों पर काबिज हो सकते हैं जिससे प्रदेश के संबंधित पंचायत क्षेत्रों का किसी भी तरह से भला नहीं हो सकता।